सोने से सुनहरी धूप कभी,
तो जैसे चिलचिलाती आग कभी l
सोचा कुछ इसमें हमने भी बैठ के,
याद आया कुछ,
बयां करना ना आसान जिसे l
धूप में काम करते वो मजबूर लोग,
हाथों में बेड़ियों तरह औज़ार थामे,
निकल पड़ते हैं उनके कदम खुद-ब-खुद,
न कुछ कहे, न आराम किए l
याद आया जब ये सब,
तो उठे फिर मेरे कदम,
बढ़े फिर एक बार,
अपनी मंज़िल की तरफ l
कुछ और बड़ा करने की ज़िद लेकर,
कुछ हार को जीत में बदलने,
कुछ अपनी ख्वाहिशों को आसमां से छूने l
चले हम फिर एक बार,
अपना रास्ता खुद बनाने l
विशेष:- ये पोस्ट इंटर्न रमा नयाल ने शेयर की है जिन्होंने Phirbhi.in पर “फिरभी लिख लो प्रतियोगिता” में हिस्सा लिया है, अगर आपके पास भी है कोई स्टोरी तो इस मेल आईडी पर भेजे: phirbhistory@gmail.com
रमा नयाल की सभी कविताएं पढ़ने के लिए यह क्लिक करे