ज़िन्दगी मेरी एक सूखे पत्ते की तरह,
कभी इस पल बैठी है सोच में,
कभी उस पल अपनी उम्मीदों में खोई,
ना मिला इसको अपना मुक्कदर कोई।
इसी इंतजार में आंख पसार के बैठी है,
दो पल की तरह,
दो उमर निकल गई,
पर ज़िन्दगी की कशमकश है वहीं।
मीलों तक ढूंढ आयी,
इन धुंधले रास्तों पर,
कुछ थपेड़े खाकर,
कुछ गिरते पड़ते,
वापस आ गई फिर एक बार निराश हो कर।
नुमाइश क्यों करती है,
ए ज़िन्दगी यू मुकदर से,
क्या तू जानती नहीं है?
इसकी कमबख्त सुविधा यही है,
किस पार ले जाना चाहती है,
और किस पार छोड़ कर चली जाती है।
विशेष:- ये पोस्ट इंटर्न रमा नयाल ने शेयर की है जिन्होंने Phirbhi.in पर “फिरभी लिख लो प्रतियोगिता” में हिस्सा लिया है, अगर आपके पास भी है कोई स्टोरी तो इस मेल आईडी पर भेजे: phirbhistory@gmail.com