देश में आज तक सात वेतन आयोग गठित हो चुके हैं। ये वेतन आयोग समय-समय पर देश में बढ़ी मंहगाई को मद्देनजर रख गठित किए गए। इन आयोगों ने समयसारू सुझाव/दिशा निर्देश दिए। इन आयोगों की सिपार्शों को उपयुक्त मानकर तुरंत लागू किया जाता रहा और सरकारी कर्मचारी वर्ग को मंहगाई महसूस ही नहीं हुई।
आश्चर्य की बात तो यह है कि देश की सरकारों ने किसानों की जिन्दगी की तरफ तवज्जों देना ही मुनासिब नहीं समझा। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, खेती पर भार बढ़ता गया। सरकारों ने खाद्यान्न व अन्य कृषि उत्पादन बढाने को समय – समय पर किसानों को प्रेरित किया। कृषि उत्पादन तो तेजी से बढने लगा मगर खुद किसान इस बहुउत्पादन के बोझ तले दबता गया। कृषि उत्पादन बढाना कोई जादू की छड़ी से काम चलाने की कला नहीं थी।
उत्पादन में लागत बढ गई लेकिन उस मुताबिक भाव नहीं निश्चित किए। किसानों को अपने कृषि उत्पादन का मुनाफा मिलना तो दूर की बात, घाटे का प्रतिशत साल दर साल बढ़ता गया। अपने पुश्तैनी कृषि- कर्म को जीवंत रखने के लिए किसानों ने साहूकारों और बैंकों का सहारा लेना शुरू किया। सूदखोर बैंकों/साहूकारों ने इस पर भी जीभरकर किसानों का नाजायज शोषण किया। कर्ज की तलवार हर समय सिर पर लटकने लग गई।
कर्ज न चुका पाने की स्थिति में बैंकों के नोटिसों के भय से कर्जदार किसान घरों से लापता होने लगे।सरकारी नीतियों ने किसानों के हालात ऐसे बना दिए कि बैंकों ने पुलिस प्रशासन का सहयोग लेकर किसानों की कीमती खेती योग्य भूमि कौड़ियों के दाम निलाम करनी शुरू कर दी। जिसका नतीजा कृषि परिवार के मुखिया अपनी आंखों सामने “मां” तुल्य कृषि भूमि को निलाम होते देख नहीं पा रहे हैं और आत्महत्याएं कर रहे हैं। देश के कुछेक बुद्धिजीवी और अर्थशासत्रियों ने देश में अन्नदाता की हो रही मौतों पर गहरा दुख व्यक्त किया और सरकार को देश में एक किसान आयोग गठन की सलाह दी।
आखिर 2004 को राष्ट्रीय किसान आयोग ( National Commission on Farmers (NCF)) का गठन हो गया। भारत के इस एकमात्र प्रथम आयोग गठन 18 नवम्बर 2004 को किया गया था। इसके अध्यक्ष एम॰ एस॰ स्वामीनाथन हैंजो अब 92 वर्ष के हो चुके हैं। डॉक्टर स्वामिनाथन ने बेहद गहराई मे जाकर जमीन, कृषि और किसानों की दशा को खंगाला। स्वामिनाथन की यह रिपोर्ट भारत के विलुप्त होते कृषि जगत और किसान को पुनर्जीवित जीवित करने में कारगर रिपोर्ट थी। आयोग ने चार रिपोर्टे दी। दिसम्बर 2004 में, अगस्त 2005 में, दिसम्बर 2005 में, और अप्रैल 2006 में। पाँचवीं तथा अन्तिम रपट 4 अक्टूबर 2006 को प्रस्तुत की गयी थी। इन रिपोर्टों में ‘अधिक तेज तथा अधिक समावेशी विकास’ की प्राप्ति के लिये उपाय सुझाये गये थे जो 11वीं पंचवर्षीय योजना का एक लक्ष्य था।
अक्सर भारत में किसान आत्महत्या 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है, जिसमें प्रतिवर्ष दस हज़ार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या की रिपोर्टें दर्ज की गई है। 1997 से 2006 के बीच एक लाख छियासठ हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। भारत की अपराध लेखाशाखा के मुताबिक 1995 से 2011 तक साढे सात लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या दर्ज हैं। इन आत्महत्याओं में छोटी जोत (छोटे किसान)वाले किसान ही नहीं हैं बल्कि मंझले व बड़ी जोत के किसान भी शामिल हैं।
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भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का एक कारण माना जाता रहा है। मानसून की विफलता, सूखा, जीवनोपयोगी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फँसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएँ की है।
सही बात तो यह है कि सरकारों की केवल कॉरपोरेट को बढावा देने की नीति और नीयत ने कृषि जगत को खत्म करने का मानस बना छोड़ा। कृषि अधिकार से जमीनों को कॉरपोरेट जगत ने लपेटे में ले लिया है। कृषि क्षेत्र निरंतर घट रहा है जो भारत जैसे देश के लिए संकट पैदा कर देने वाले संकेत हैं।सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा। देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। याद रहे सबसे पहले 1990 में प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार के ग्रामीण मामलों के संवाददाता पी. साईंनाथ ने किसानों द्वारा नियमित आत्महत्याओं की सूचना दी। तब पूरे भारत में यह सनसनीखेज खबरें फैल गई।
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भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सरकार द्वारा विदर्भ के किसानों पर व्यय करने के लिए 110 अरब रूपए के अनुदान की घोषणा की। इसके बाद मानो सरकारों को सांप ही सूंघ गया हो, सब कुछ मौन ही हो गया और कृषि संकट गहराता ही गया। किसानों की बढ़ती आत्महत्या को लेकर भी आयोग ने चिंता जताई थी। इसके साथ ही ज्यादा आत्महत्या वाले स्थानों का चिह्नित कर वहां विशेष सुधार कार्यक्रम चलाने की बात कही थी। सभी तरह की फसलों के बीमा की जरूरत बताई गई थी। साथ ही आयोग ने कहा था कि किसानों के स्वास्थ्य को लेकर खास ध्यान देने की जरूरत है। इससे उनकी आत्महत्याओं में कमी आएगी।
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इसे लेकर भी आयोग ने कई सिफारिशें की थी। इसमें गांव के स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक पूरी व्यवस्था का खांका खींचा गया था। इसमें किसानों को पैदावार को लेकर सुविधाओं को पहुंचाने के साथ ही विदेशों में फसलों को भेजने की व्यवस्था थी। साथ ही फसलों के आयात और उनके भाव पर नजर रखने की व्यवस्था बनाने की सिफारिश भी थी। हैरानी की बात सरकाररों ने आयोग की सिपार्शों पर आंखों पर पट्टी बांध छोड़ी और कानों में रूई ठूंस कर किसानों के मरने की खबरों को सुनने की शौकीन होकर रह गई हैं।किसानों की मौतों पर राजनीति की जाती है और आनन्द लिया जाता है!!?
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सन् 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। वास्तव में जितने भी ‘किसान आंदोलन’ हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। उस समय के समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित कियाथा।
आज मीडिया भी कृषि और किसान को पूरी तरह खुलकर तवज्जो नहीं दे रहा।
अभी ताजा घटना ने देश में सरकार ने दमनकारी नीति से 22 फरवरी व 23 फरवरी को शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात केंद्र के समक्ष रखने के लिए “दिल्ली घेराव” नाम से देश के कोने कोने से दिल्ली पहुंचना था, मगर सरकार की सोची समझी चाल ने यह आन्दोलन कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। राजा/शासक सारी प्रजा के पालक होते हैं, लोकतंत्र में सत्ता रूढ़ सरकारें भी नागरिकों की माई-बाप हैं। एक पंजाबी कहावत है ਡੁੱਲਿਆਂ ਬੇਰਾਂ ਦਾ ਅਜੇ ਵੀ ਕੁੱਝ ਨਹੀਂ ਵਿਗੜਿਆ। बस जरूरत है तो इच्शाशक्ति की है। डूबती कृषि और खत्म होती किसानी को बचा कर भारत को खाद्यान्न के लिए विदेशों के आगे हाथ फैलाने से बचाया जा सकता है।
[स्रोत- सतनाम मांगट एवं श्री जी एस जोसन]