मंगलवार को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक के मामले में एक अहम फैसला सुनाया, सर्वोच्च न्यायालय ने 2 साल से चल रही तीन तलाक की सुनवाई के मामले में निर्णय लिया कि तीन तलाक असंवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सभी राजनीतिक दलों व सामाजिक संगठनों ने तहे दिल से स्वागत किया। इस फैसले से सभी मुस्लिम महिलाओं में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक के मुद्दे पर सरकार से 6 माह में कानून बनाने का आदेश दिया है परंतु सोचने वाली बात यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला वाकई में मुस्लिम महिलाओं के भविष्य को संवार पाएगा।
तीन तलाक के फैसले से पहले भी कई निर्णायक फैसले सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाए गए हैं, लेकिन उनकी जमीनी हालात क्या है चलिए देखते हैं।
संपत्ति पर समान अधिकार-: महिलाओं को प्राचीन काल से ही अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ा है, जिसमें एक था संपत्ति का अधिकार। हिंदू महिलाओं को पिता की संपत्ति में से समान अधिकार प्राप्त नहीं थे, इस मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 9 सितंबर 2005 को पिता की संपत्ति में बेटी को बेटे के बराबर अधिकार दिया परंतु हकीकत क्या है यह आप सभी जानते हैं। ऐसे कितने परिवार है जो बंटवारे के समय अपनी संपत्ति में से बेटी को उसका हिस्सा देते हैं। बेटियां भी रिश्ते खराब होने के डर से यह अधिकार नहीं मांगती।
हिंदू विधवा विवाह-: समाज में कानून बनने के बाद भी विधवा विवाह को लेकर सहमति दिखाई नहीं देती। विधवा होने के बाद ना तो समाज उन्हें अपने साथ रहने की मान्यता देता है ना दूसरा विवाह करने की। न जाने कितनी विधवा महिलाएं आश्रमों, तीर्थ स्थलों आदि में भजन पूजन करते हुए अपना पेट पाल रही हैं। आज भी समाज या घरों में होने वाले शुभ कार्यों में विधवाओं को शामिल नहीं किया जाता।
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दहेज प्रथा-: दहेज प्रथा पर भी हमारा कानून 1961 में ही रोक लगा चुका है और दहेज लेने और देने वालों के लिए दंड का प्रावधान है, इसके बावजूद हकीकत आपके सामने है। कितने लोग हैं जो बिना दहेज के किसी की बेटी से शादी कर लेते हैं। आए दिन किस्से सुनने में आते हैं कि दहेज़ का सामान कम मिलने पर बारात वापस चली गई। इस समाज में मुझे तो कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई नहीं देता जो केवल लड़की को दहेज के बिना शादी करके घर ले आए और आजीवन खुश रखे। दहेज प्रथा के चलते न जाने कितनी नवविवाहिताओं को जलाकर और गला घोटकर मार दिया जाता है।
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घरेलू हिंसा-: महिलाओं को घरेलू हिंसा से मुक्त कराने के लिए 2005 में अधिनियम लाया गया था जिसके तहत महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा करने वाले व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने और उन्हें दंड देने का प्रावधान है। इस अधिनियम के तहत 7 साल की जेल भी हो सकती है। फिर भी भारत में घरेलू हिंसा के आंकड़े संतोषजनक नहीं हैंं। 70 फीसदी महिलाएं आज भी घरेलू हिंसा की शिकार हैं जिनमें अधिकतर मामले तो संज्ञान में आते ही नहीं आते।
तीन तलाक-: मंगलवार को तीन तलाक जैसी कुप्रथा का अंत हो गया लेकिन अन्य कानून और अधिनियम की तरह इस कुप्रथा में कितनी कमी आएगी यह देखने और सोचने का विषय है। AIMIM के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने भी यही सवाल उठाया है और कहा है कि यह कुप्रथा कानून बनाने से नहीं सुधार से खत्म होगी। लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी।