उपचुनावो को ध्यान में रखते हुए यह महसूस हो रहा है कि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी कि वह पुरानी लहर अब नहीं रही है । अगर यह मान भी लिया जाए तो क्या यह स्वीकार कर लिया जाएगा कि विपक्ष मजबूत हुआ है ? नहीं क्योंकि 39 प्रतिशत मत भाजपा ने अभी भी प्राप्त कर लिए हैं और शेष 61 परसेंट में सभी राजनीतिक पार्टियां मिलकर अपने उम्मीदवारों को विजय बना पाई हैं ।
तो क्या यह मान लिया जाए कि आने वाले समय में 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी पार्टियां इसी प्रकार से संगठित होकर भारतीय जनता पार्टी को हरा लेंगे, वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यही महसूस हो रहा है शायद यह संभव हो जाए, लेकिन सोचने वाली बात यहां शुरू होती है अगर सभी विपक्षी दाल मिल कर चुनाव लड़ेंगे तो या तो कुछ छोटे राजनीतिक दलों को आत्महत्या करनी पड़ेगी या बड़े दलों को बलि की वेदी पर अपने आपको स्वाहा करना पड़ेगा ।
क्योंकि हर दल में लोकसभा के उम्मीदवार होते हैं, और जब गठबंधन भी नहीं होता है तब उनमें आपस में मारामारी होती है । टिकट ना मिलने के कारण कई नेता बागी भी हो जाते हैं अगर यह सब एक होकर चुनाव लड़ेंगे तो कई पार्टियों के कई बड़े नेताओं को टिकट मिलना संभव नहीं हो पाएगा इसलिए या तो वह नेता अपना धर्म बदलने का कर्तव्य निभाते हुए दूसरी पार्टी में चले जाएंगे और दूसरी पार्टी के नाम पर विकल्प एक ही होगा भारतीय जनता पार्टी क्योंकि बाकी तो सभी पार्टियां गठबंधन में होंगी तो किसी दूसरी पार्टी में जाने से तो टिकट मिलने से रहा ।
ऐसी परिस्थिति में अगर बड़े नेता बीजेपी में चले जाते हैं तो क्या पार्टियों का भविष्य उज्जवल मान लिया जाएगा? और अगर नहीं तो फिर जीत सुनिश्चित होना कैसे संभव है ?और यदि गठबंधन को जीत मिल भी गई तो कम से कम 50% तो राजनैतिक दलों को आत्महत्या करनी ही पड़ेगी बावजूद इसके कि अगर गठबंधन को पर्याप्त सीटें मिल भी गई और राष्ट्रपति ने सरकार बनाने का न्योता भी गठबंधन को दे दिया तो बहुमत के इस गठबंधन का नेता कौन होगा ?
सीधी सी बात है जो सबसे बड़ी पार्टी होगी उसका जो सर्वोच्च नेता होगा सर्वमान्य नेता होगा उसी को प्रधानमंत्री पद सौंप दिया जाएगा किंतु यह इतना आसान काम नहीं है । चलो मान भी लेते हैं कि यह मुश्किल काम भी आसानी से पूरा हो गया तो फिर मंत्रियों के बंटवारे कैसे होंगे और अगर मंत्रियों के भी बंटवारे हो गए तो विभागों के बंटवारे कैसे होंगे और विभागों के बंटवारे भी हो गए तो इसकी गारंटी कौन लेगा कि सभी दल इस से संतुष्ट होंगे और अगर यह भी मान लिया जाए कि सभी दल सरकार बनाने के लिए एकजुट हो ही गए तो ऐसी सरकार कितने दिन चल जाएगी ?
विपक्ष का मोदी को रोकने का एक सराहनीय प्रयास है ऐसे प्रयास होने भी चाहिए ताकि सत्ता निरंकुश होने से रोका जा सके लेकिन उसका मतलब यह तो नहीं कि दूसरों कि एक आंख फोड़ने के चक्कर में हम अपनी दोनों आंखें फोड़ ले तात्पर्य यह है कि मोदी को रोकने के लिए अन्य राजनीतिक दलों का अस्तित्व खत्म करने पर क्यों तो तुले हैं । हमें एक बहुत अच्छी चीज सिखाई जाती है कि दूसरों को छोटा करने के लिए उससे बड़ा बनकर दिखाओ लेकिन यहां बड़ा बनने की कोशिश नहीं की जा रही है यहां कई छोटो छोटो को खत्म करने की कोशिश की जा रही है ।
मतों का सही उपयोग हो इसके लिए दो दलीय प्रणाली बने । इस प्रकार की कोई कोशिश नहीं की जा रही है। कि राष्ट्रीय गठबंधन को संवैधानिक दर्जा मिले ।राष्ट्रीय गठबंधन के एजेंडे के बारे में कोई चर्चा नहीं की जा रही है राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रीय पार्टियों की शरण में जा रहे हैं और क्षेत्रीय पार्टियां अल्पमत लेकर सत्ता पर काबिज भी हो रही हैं जिनके पास ना विस्तृत सोच है ना बड़ा क्षेत्र है। और ना ही आगे बढ़ने की संभावनाएं ही रह जाएंगी ।
क्योंकि अगर गठबंधन होता है तो सभी पार्टियों के क्षेत्र सीमित हो जाएंगे और फिर जो जिस क्षेत्र से चुनाव जीतकर आता है। उस पार्टी को उसी क्षेत्र के लिए सीमित कर दिया जाएगा क्योंकि गठबंधन धर्म के नाते दूसरे क्षेत्र भी किसी न किसी पार्टी के दायरे में आते होंगे परिणाम यह होगा कि छोटी पार्टियां कभी बड़ी नहीं हो सकेंगीे और बड़ी पार्टियां भी छोटी होती चली जाएगी।
अंत में यही सुझाव देना चाहूंगा कि भाजपा को रोकने के लिए अपने अपने दायरे को बढ़ाएं मिलने वाले मतों के प्रतिशत को बढ़ाएं और मतदाताओं में अपनी छवि को मजबूत करें । भारतीय जनता पार्टी से बेहतर विकल्प प्रस्तुत करें इसके लिए पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र होने की अत्यंत आवश्यकता है । सरकार में निरंकुशता ना आए इसके लिए सबसे पहले पार्टी में निरंकुशता खत्म करनी पड़ेगी पार्टियों को संवैधानिक और लोकतांत्रिक होना पड़ेगा जो पार्टी का जो सर्वोच्च नेता है उसी का बेटा पार्टी के सर्वोच्च पद पर बैठे इस प्रथा को छोड़ना पड़ेगा ।तभी एक मजबूत विपक्ष भारत की राजनीति में पैदा हो सकेगा ।
[स्रोत- कप्तान सिंह यादव]