श्री जगन्नाथपुरी – रथयात्रा

Jagannath Puri Rath Yatra

रथयात्रा भगवान जगन्नाथ की शोभायात्रा होती है । भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के संग श्री जगन्नाथ मन्दिरं से निकल कर रथ पर भक्तजनों के दशर्नार्थ गली मोहल्लों से गुजरते हैं । भक्तजन मोटे मोटे रस्सों से रथों को स्वयं खींचते हैं । उनकी खुशी देखते ही बनती है । ‘हरे रामा हरे रामा, रामा राम हरे हरे’ की मीठी मध्यम ध्वनि माहौल को भक्तिमय बनाती है ।

रथयात्रा आषाड़ मास की द्वितीया तिथि से प्रारम्भ होती है और नोे दिन चलती है । इस वर्ष रथयात्रा 25 जून रविवार को प्रारम्भ हुई और 3 जुलाई सोमवार को पुनर्यात्रा या उल्टा रथ है ।

इसके विवरण ब्रहम पुराण, पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में मिलते हैं । कपिल संहिता में भी रथयात्रा के विषय में बताया गया है ।

मुख्य रथयात्रा श्री जगन्नाथपुरी में श्री जगन्नाथ मन्दिर से आरम्भ होती है और इसमें भाग लेने के लिए दुनिया भर से लाखों भक्तगण आते हैं । इसके अतिरिक्त देश विदेश में अनेक स्थानो पर जहॉं जहॉं भगवान जगन्नाथ के मन्दिर हैं, भगवान की रथयात्रा निकाली जाती है ।

भगवान जगन्नाथ की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह जगत के नाथ हैं । यानि आम जनता के नाथ और आम जनता की तरह । उनके हर क्रियाकलाप या संस्कार हम आम मानवों या इन्सानों की तरह ही होते हैं । जैसे हम खाते पीते हैं, भावानाएॅं होती हैं, बीमार पड़ते हैं, औषधियॉं दी जाती हैं, वैसे ही भगवान के भी सभी क्रियाकलाप होते हैं । उनकी यह विशेषता श्री जगन्नाथपुरी की रथयात्रा में विशेष रूप से परिलक्षित होती है ।

इस लेख में मैं श्री जगन्नाथपुरी की रथयात्रा से सम्बन्धित मान्यतायों एवं परम्पराओं का संक्षिप्त विवरण ऐसे पाठकगण के लिए प्रस्तुत कर रही हूॅं जिन्हें इसमें सम्मिलित होने का सुअवसर अभी प्राप्त नहीं हुआ है ।

देवस्नान पूर्णिमा, जो कि ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को मनायी जाती है, जगन्नाथ भगवान की जन्मतिथि है । उसी दिन भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा जी, बलभद्र और सुदर्शन चक्र की प्रतिमाओं को श्री जगन्नाथ मन्दिर परिसर में स्थित शीतला मन्दिर के निकट एक विशेष कुऑं जिसे सुना कुऑं कहते हैं तक लाया जाता है । इस कुएॅं में दुनिया भर के सभी प्रमुख तीर्थों का जल भरा होता है । यह हमेशा ढका रहता है, साल भर में केवल भगवान को स्नान कराने के लिए ही इसको खोला जाता है ।

वह परिसर जहॉं भगवान को स्नान कराया जाता है उसे ताल मण्डप कहते हैं और यह काफ़ी ऊॅचा स्थान होता है । जिससे भक्तगण मन्दिर के बाहर से भी भगवान को स्नान करते हुए दर्शन कर सकें । 108 घड़ों के जल से भगवान का स्नान कराया जाता है । मन्दिर से तालमण्डप में लाने की विधि को स्थानीय भाषा में पहण्डी कहते हैं । प्रभु के स्नान के दर्शन इतने शुभ माने जाते हैं कि कहते हैं कि उस दिन प्रभु को जो देख ले उसके समस्त पाप धुल जाते हैं । स्कन्द पुराण के अनुसार राजा इन्द्रद्युम्न ने जब भगवान को यहॉं स्थापित किया था, तब भी यह स्नानपर्व मनाया था । यह श्री जगन्नाथ पुरी का सबसे पुराना समारोह है जिसके विस्तृत नियम नीलाद्री मोहादया नामक धार्मिक पुस्तक में संकलित हैं ।

इसी तरह यह माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ को स्नानपूर्णिमा पर इतना स्नान कराया जाता है कि उनको ठंड लग जाती है और उन्हें ज्वर आ जाता है । इन दिनों भक्तों को भगवान के दर्शन वर्जित हैं । रथयात्रा के पन्द्रह दिन पहले बहुत ही उमस भरी गर्मी हो जाती है । इसके पीछे यह मान्यता है कि भगवान का बुखार इतना तेज हो जाता है कि उसकी तपन हर तरफ़ फै़ल जाती है और उसे भक्तजन भी महसूस करते हैं । भगवान को अस्वस्थता के दौरान एक विशेश कक्ष में रखा जाता है जो बीमारों के लिए होता है । उसे रतन वेदी कहा जाता है । यह पन्द्रह दिन अनासारा या अनाबासरा के नाम से जाने जाते हैं । इन अनासारा के दिनों में भगवान को सिर्फ फल और पनीर मिश्रित जल दिया जाता है । साथ ही दशमूल औषधियॉं दी जाती हैं । राजवैद्य भगवान का इलाज करते हैं । इन दिनों घंटी, मृदंगम् बजाना मना है क्योंकि भगवान आराम कर रहे हैं ।

वैशाख मास की प्रतिपदा को भगवान प्रकट होते हैं । पन्द्रह दिन बाद जब भगवान स्वस्थ हो जाते हैं तो रथयात्रा के एक दिन पहले भक्तों के दर्शनार्थ बाहर लाये जाते हैं । इस क्रिया को नवयौवना दर्शन कहते हैं । इस नेत्रोत्सव भी कहते हैं ।

रथयात्रा के दिन भगवान अपने सुसज्जित रूप में मन्दिर से बाहर रथ की ओर लाये जाते हैं । इस विधि को पहंडि बिजे के नाम से जाना जाता है । भक्तों और भगवान की मध्यम गति से बढ़ती शोभायात्रा धाडि पहंडि के नाम से जानी जाती है । सबसे आगे भगवान सुदर्शन चक्र, फिर बलभद्र और फिर सुभद्रा और अन्त में जगन्नाथ भगवान निकलते हैं । सात सीढ़ी की उत्तरीय निकासी पर चारों भगवान इकठ्ठे होते हैं और उन्हें फूलों के बड़े बड़े मुकट पहनाये जाते हैं जिन्हें तहिया कहते हैं । भगवान सुदर्शन चक्र और सुभद्रा को तो कन्धों पर उठा कर लाया जाता है परन्तु बलभद्र और जगन्नाथ जी को लयब़द्ध तरीके से आगे पीछे ढकेल कर ले जाया जाता है । साथ ही ढोल झॉंझ मजीरों की घ्वनि गंजायमान होती है ।ं

भगवान जगन्नाथ को राजाधिराज माना जाता है और पुरी के तत्कालीन राजा जिन्हें गजपति महाराज पुकारा जाता है, वे स्वयं को भगवान का सेवक मानते हैं । गजपति महाराज प्रतिमाओं को रथों में आसीन करने से पहले सोने की झाडू़ से रथ की जमीन बुहारते हैं, झाड़ते हैं । इस तरह वे आम जनता के प्रतिनिधि के रूप में प्रभु की सेवा करते हैं । इस संस्कार को छेड़ा पहाड़ा कहा जाता है । इसके बाद चारों भगवानों को रथों पर स्थापित कर दिया जाता है ।

रथ अति सुन्दर और भव्य तरीके से सजाये जाते हैं । इन पर कई चित्र बनाये जाते हैं, लकड़ी की आकृतियॉं उकेरी जाती हैं और सोने चॉंदी की पतली परतें सजायी जाती हैं । वसन्त पन्चमी से ही रथ बनाने के लिए काष्ठ यानि लकड़ी इकठ्ठी करनी शुरू हो जाती है । इसके बाद अक्षयतृतीया, जो कि वैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया होती है से काष्ठ को काट कर रथ बनाना शुरू हो जाता है । यह रथ रथखाला नामक विशेष स्थान पर बनाये जाते है । श्री जगन्नाथ मन्दिर के पुजारी रथनिर्माण कार्य का शुभारम्भ करते हैं । तीन विशेष मालाएॅं, जिन्हें अंग्य माला कहते हैं, उन्हें तीन लकड़ी के टुकड़ों पर चढ़ाया जाता है और लकड़ी को काटने का काम शुरू हो जाता है ।

भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष के नाम से जाना जाता है । इसे गरूड़ ध्वज और कपिल ध्वज नामों से भी पुकारा जाता है । यह कुल 832 काष्ट खण्डों से बना होता है । इसमें सोलह चक्के या पहिये होते हैं और इसकी ऊंचाई करीब 45 फीट और चौड़ाई 34 फीट 6 इंच होती है । माना जाता है कि दारूक इस रथ के सारथी हैं । रथ के रक्षक स्वयं गरूड़ हैं ।

भगवान बलभद्र का रथ तालध्वजा के नाम से जाना जाता है । यह 763 काष्ठ खण्डों से बना होता है । इसमें कुल 14 पहिये होते हैं । रथ की ऊंचाई करीब 44 फीट और चौड़ाई 33 फीट होती है । रथ के सारथी माताली हैं । रथ के रक्षक स्वयं वासुदेव हैं । रथ के रस्से का नाम वासुकि नाग है ।

भगवान की बहन देवी सुभद्रा का रथ देवदलन या दर्पदलन के नाम से जाना जाता है । यह 593 काष्ठ खण्डों से बना होता है । इसमें कुल 12 पहिये होते हैं और इसकी रथ ऊंचाई करीब 43 फीट और चौड़ाई 31 फीट 6 इंच होती है । माना जाता है कि रथ के सारथी अर्जुन हैं । रथ के रक्षक जयदुर्गा हैं । रथ के रस्से का नाम स्वर्णचूड़ नागुनी है ।

ऐसा माना जाता है कि रथो का निर्माण बु़द्धि, चरित्र और अहंकार से होता है । ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं । इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल का द्योतक है ।

श्री जगन्नाथपुरी में रथयात्रा के पहले दिन भगवान जगन्नाथ सुदर्शन चक्र, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथों पर सवार होकर गुंडीचा मन्दिर के लिए निकलते हैं । गुंडीचा मन्दिर जगन्नाथ मन्दिर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर है । गुंडीचा मन्दिर भगवान जगन्नाथ का जन्मस्थान माना जाता है । गुडीचा माता राजा इन्द्रद्युम्न की रानी थीं और यह माना जाता है कि राजा ने ही पुरी में श्री जगन्नाथ मन्दिर स्थापित किया था । इसलिए गुंडीचा माता को श्री जगन्नाथ भगवान मौसी मानते हैं और इसीलिए प्रत्येक वर्ष अपने भाई बहन के साथ मौसी से मिलने गुंडीचा माता मन्दिर जाते हैं ।

जिस मार्ग से भगवान को गुंडीचा मन्दिर ले जाया जाता है, उसे बड़दॉंड कहते हैं या पुरी ग्रैण्ड ट्रंक रोड कहते हैं ।

उसी दिन रथ रात होने तक गुण्डीचा मन्दिर पहुॅंच जाते है । पहला दिन भगवान रथों में ही बिताते हैं । दूसरे दिन भगवान गुण्डीचा मन्दिर में प्रवेश करते हैं । सात दिनों तक भगवान यहीं रहते हैं । अपने सात दिनों के वास में दिन में दो बार भगवान को काफ़ी मात्रा में चन्दन का लेप लगाया जाता है जिससे उनकों शीतलता मिले । भगवान को नित नये वस्त्राभूषण पहनाये जाते हैं । यहॉं इन्हें विभिन्न पकवानों के अतिरिक्त छेना पोड़ा नाम की मिठाई का भोग लगाया जाता है । पोड़ा पीठा भी इस त्योहार का मिष्ठान्न है ।

इस उत्सव के दौरान पन्चमी तिथि जिसको हेरा पन्चमी कहते हैं को काफ़ी महत्वपूर्ण माना जाता है । भगवान जब रथयात्रा को निकले थे तो लक्ष्मीजी को पीछे छोड़ आये थे जिससे रूष्ठ लक्ष्मीजी हेरा पन्चमी को गुण्डीचा मन्दिर पहुॅंचती हैं । उनके इस रूप को सुवर्णलक्ष्मी कहते हैं । पुजारीगण माता को भगवान से मिलने के लिए एक पवित्र स्थान पर ले जाते हैं और दोनों को आमने सामने बैठा देते हैं । भक्तगण इस पवित्र दृश्य के दर्शनार्थ भारी संख्या में आते हैं । लक्ष्मीजी भगवान से घर वापस चलने की प्रार्थना करती हैं और भगवान उनको एक माला देकर उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं । शाम को लक्ष्मीजी अकेली घर वापस जाने को तैयार हो जाती हैं । परन्तु मन से तो लक्ष्मीजी अभी भी रूष्ठ हैं । अतएव क्रोधवश अपने परिचारक को नन्दीघोष रथ का एक पहिया तोड़ने का आदेश देती हैं । इस क्रिया को रथभंग कहते हैं । आदेश देकर लक्ष्मीजी ने रथ तो भंग कर दिया परन्तु डर भी गयी और भयभीत होकर इमली के पेड़ के पीछे छिप गयीं । इसके बाद वे चुपचाप एक टेढ़े रास्ते से अपने घर श्रीमन्दिर लौट जाती हैं । अब भगवान ने जैसा लक्ष्मीजी को लौटने का वचन दिया था, छठे दिन गुण्डीचा मन्दिर के बाहर श्रीमन्दिर की ओर मुख करके उनके रथ तैयार हो जाते हैं ।

दूसरे अन्तिम दिन को संध्या दर्शन कहते हैं । यह दिन भी बहुत ही शुभ माना जाता है ।

रासलीला – अन्तिम दिन भगवान रासलीला में मग्न रहते हैं । हिन्दू शास्त्रों में रासलीला वृन्दावन की उन रातों को कहते हैं जिसमें श्रीकृष्ण राधा और गोपियों सहित नृत्यसंगीत में मगन रहते थे । भगवान जगन्नाथ को रासमण्डप में ले जाया जाता है । यहॉं गीत गोविन्द के गीत गाये जाते हैं ।

गुंडीचा माता मन्दिर में वास करने के बाद वापस जगन्नाथ मन्दिर की ओर प्रस्थान करते हैं जिसे पुनर्यात्रा या उल्टा रथ भी कहा जाता है ।

बहुदा यात्रा – भगवान की वापसी की यात्रा को बहुदा यात्रा कहते हैं । कहा जाता है कि रावण के भाई विभीषण ने इसी दिन लंका से ही भगवान जगन्नाथ के दर्शन कर लिए थे । भक्तगण मानते हैं कि इस समारोह के दर्शनमात्र से ही मोक्ष प्राप्ति की जा सकती है । इस यात्रा को उल्टो रथ या पुनर्यात्रा भी कहते हैं । चारों भगवानों को ढोल मजीरों की ध्वनि के बीच मन्दिर से बाहर लाया जाता है । अपने अपने रथों से भगवान श्रीमन्दिर वापस जाते हैं । उल्टा रथ के समय भगवान को पोड़ापीठा का भोग लगाया जाता है जो कि एक मिठाई है ।

कहा जाता है कि साल भर श्रीमन्दिर में बाहर के भोजन का प्रवेश नहीं होता । बस अपनी वापसी के समय भगवान लक्ष्मीजी को मनाने के लिए बाहर से रसगुल्ले लेकर आते हैं । लौटने पर श्रीमन्दिर के द्वार बन्द मिलते हैं क्योंकि लक्ष्मीजी रूठी हुई हैं और द्वार नहीं खोलतीं । भगवान और लक्ष्मीजी के इस रूठने मनाने के संवाद को पण्डितगण बहुत ही सुन्दर नाटक के रूप में प्रस्तुत करते हैं ।

श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद कहा जाता है ।

रथयात्रा भगवान और भक्तें के प्रेम की शोभायात्रा है जब दोनों साथ साथ चलते हैं ।

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