वर्तमान बचपन के आधुनिकीकरण और अतीत की यादें

Badalta bachpan

बचपन मानव जीवन का आरंभिक और महत्वपूर्ण अंग है जिसे मासूमियत, बडों का प्यार, बालसुलभ शैतानियाॅं, खेल खिलौने सम्पूर्ण बनाते हैं । फिर अलग अलग पीढियों का बचपन भिन्न कैसे हो सकता है ? पर हमारा बचपन आज के बचपन से पूरी तरह अलग था ।

बचपन की परिभाषा तो वही थी तब जो अब है । किन्तु समय के साथ बचपन के तौर तरीके, खेल खिलौने, विद्या अर्जन के माध्यम बहुत बदल गये हैं ।

अब नहीं रही सुलभ वो प्रकृति जिसके सानिध्य में रहकर, जिसके साथ खेलकर हमने विद्या ग्रहण की । पेडों की डालों पर बैठकर गणित के सवाल भी खेल का एक हिस्सा लगते थे । पुस्तकों के माध्यम से जीव जन्तु जगत के बारे में हमने बाद में जाना, उससे पहले प्रकृति की गोद में खेलकर हम मूल जानकारी हासिल कर चुके थे ।

इतिहास हमारे लिये अरूचिकर नहीं था क्योंकि अधिकतर ऐतिहासिक कहानियाॅं हमें “अमर चित्र कथा” और “नंदन” के माध्यम से परोसी जाती थीं । इन पत्रिकाओं में चित्र ऐसे सजीव होते थे कि आज के एनिमेशन कार्टून कार्यक्रम भी हमें उतने जीवन्त नहीं लगते । विवरण ऐसे रोचक कि जितनी बार पढो उतनी बार आनन्द आये । संस्कारों का महत्वपूर्ण स्थान था बच्चों के लालन पालन में । हितोपदेश और पंचतंत्र की कहानियाॅं जीवन के आदर्श सिखाती थीं ।

ऐसा था हमारा बचपन ! आज के बचपन से विलग ! एक तरफ बहुत खुशी होती है कि हम उडते स्वच्छन्द पंछी जैसा बचपन जी पाये । दूसरी तरफ कष्ट होता है आज के बदलते बचपन को देखकर ।

आज बच्चे भरी धूप में तितलियों के पीछे भागें तो अगले पहर उन्हे बुखार ही आ जाये । न ही बच्चों में वो शारीरिक क्षमता रही और न वो रंगबिरंगी तितलियाॅं ही दिखायी देती हैं जिनके रंगों के पीछे बालमन बौरा जाये । स्कूल के बस्तों के बढते बोझ में समय की ऐसी किल्लत है कि बच्चों को खेलने का समय भी पूरी तरह से नहीं मिलता । हमारे समय में बडे बूढे गोधूलि वेला में पढते पढते भी हमें उठा दिया करते थे, कहते थे शाम को देवता विचरण करते हैं, जाओ बाहर खेलो ।

खेल खिलौनों में तो ऐसा बदलाव आया है कि उनमें बचपना अब दिखाई ही नहीं देता । वैसे भी पढाई लिखाई की तरह अब खिलौने भी कम्प्यूटर स्क्रीन पर सिमट गये हैं । बच्चों पर इनका क्या दूरगामी परिणाम होगा, यह माॅं-बाप सोचते नहीं और व्यापारी अपनी जेबों के आगे देख नहीं सकते ।

हमारे समय की गुडिया की तुलना में आज की गुडिया में जो बदलाव आये हैं, उससे ही अलग अलग पीढियों के बचपन के बदलाव का अन्दाजा लगाया जा सकता है । पहले होती थी कपडे की गुडिया, फिर प्रचलित हुई थी मासूम सी आॅंखें झपकाने वाली प्लास्टिक की गुडिया । पर आज के समय की गुडिया तो है वयस्क महिला का प्रतिरूप । ना ही उसमें कोई मासूमियत है और ना ही बालमन का अक्स । छोटी छोटी बच्चियाॅं फैशन की दौड में आगे हैं क्योंकि उनकी आदर्श तो फैशनपरस्त बार्बी है ।

पहले जमाने के बच्चों के हाथपाॅंव बहुत तेज चलते थे और आज के बच्चों की उंगलियाॅं । खेल कूद कर शरीर में जो लचीलापन आता था और शरीर आरोग्य बनता था, उसी की भयंकर कमी आज की पीढी में देखी जा रही है । अपने बचपन में हम फल और घर के बने व्यंजन खा कर पुष्ट हुए, उनकी जगह आज फास्ट फूड और बनेबनाये तथाकथिज न्यूट्रिशनल उत्पादों ने ले ली है जिन्हें खिलाकर पौष्टिक तत्वों की पूर्ति मान ली जाती है ।

ये भी पढ़ें: परिवार की कर्णधार है नारी

ये अवश्य है कि बस्तों के बोझ और कोचिग के टाइट शेड्यूल में आज के बच्चों का परीक्षाफल स्तर वर्ष प्रतिवर्ष उच्चतर होता जा रहा है । हमारे समय में प्रथम श्रेणी या डिस्टिंक्शन आना मतलब दूर दूर तक रिश्तेदारी में नाम ऊॅचा हो जाता था । आज अस्सी प्रतिषत से कम पानें वालों को तो औसत छात्र ही माना जाता है । प्रश्न यह है कि कहीं तो इस दौड का अंत होगा । क्या जीवन का आनन्द और सफलता परीक्षाफल के प्रतिशत से निर्धारित होती है ?

पर आज विद्या मेहनत से अर्जित नहीं की जाती । प्रश्नों के उत्तर हासिल किये जाते हें जिसका आसान रास्ता गूगल पर ब्राउजिंग है । वैसे तो हर पीढी अपने तौर तरीकों को सही और अगली पीढी में नुक्स निकालना अपना कत्तर्वय समझती है । कौन बेहतर है, कौन सी पीढी अधिक स्मार्ट हैं, इन पश्नों का उत्तर किन पैमानों पर पाया जाये ?

आज जहां बच्चों की पूरी दुनिया उनकी कम्प्यूटर स्क्रीन तक सीमित हो गयी है, उस बनी बनायी जानकारी से मानव चेतना, अंतःविश्लेषण की शक्ति कैसे जागृत होगी, यह विवादास्पद है । बचपन समय से पहले परिपक्व हो रहा है । शिक्षा अर्जित करने की स्लो एण्ड स्टेडी प्रोसेस इतनी रेडीमेड हो गयी है कि आन्तरिक चेतना विकसित नहीं हो पा रहीं है ।

जैसा बोएॅंगे, वैसा काटेंगे । बच्चों को पालने के तरीके का चुनाव हमारा है, बच्चों का क्या दोष है । अभी भी समय है, आन्तरिक चेतना विकसित करनी है या क्म्प्यूटराइज्ड बचपन देना है । हमे ध्यान रखना चाहिए – गार्बेज इन, गार्बेज आउट !

विशेष:- ये पोस्ट इंटर्न पारुल अग्रवाल ने शेयर की है जिन्होंने Phirbhi.in पर “फिरभी लिख लो प्रतियोगिता” में हिस्सा लिया है, अगर आपके पास भी है कोई स्टोरी तो इस मेल आईडी पर भेजे: phirbhistory@gmail.com.

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.