किशनगंज:- मिनी दार्जिलिंग के नाम से शुमार नेपाल के इस सीमावर्ती जिले में पिछले कुछ दिनों से रुक रुक कर बारिश होने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। बुजुर्गों की माने तो इस महीने अर्थात चैत-बैशाख में कड़ी धूप व पछुआ हवा चलने की परम्परा होती थी। इस मौसम में गर्म हवा सुबह 8 बजे से चलनी शुरू हो जाती थी।
किन्तु आज जमाना इतना बदल गया है कि बारिश में गर्मी, ठंडी में बारिश व गर्मी में ठंड पड़ रहा है। अब उन्हें कौन समझाए की ग्लोबिंग वार्मिंग का नतीजा है। हमने आधुनिकता की आड़ में प्रकृति से ही छेड़छाड़ किया है, जिसका नतीजा है कि आज विपरीत परिणाम भोगना हमारी नियति बन गयी है। बीते कुछ दिनों से क्षेत्र में हो रही बारिश किसानों के लिए सिरदर्दी बन कर रह गई है।
काफी मुश्किल से इस बार गेंहू की फसल अच्छी हुई थी, किन्तु बेमौसम की इस बारिश ने फसलों को काफी नुकसान पहुचाया है। किशनगंज जिला धीरे धीरे सीमांचल में मकई हब बनता जा रहा है।आज कल इस इलाके में करीब 75% भागों में मकई की खेती की जाती है। किन्तु अब तक कई बार किसानो को बारिश के साथ ओलावृष्टि का सामना करना पड़ा।
ऐसे में मकई की बालियों में दानों का पुष्ट होना संदेहजनक समझा जा रहा है। किसान मकई की खेती में अपनी अधिकतर पूंजी लगा देते हैं, ताकि फसल अच्छा हो सके। लेकिन लगातार बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि होना इस बात का साफ प्रमाण है कि इस बार भी किसानों को फिर मायूसी का सामना करना पड़ेगा।
किसान अभी से हतप्रभ हैं कि क्या किया जाए?अभी तो फसल खेतों में ही है। असल चुनौती तो अभी बाकी है। दरअसल मकई को तोड़कर खलिहान लाना व मालिश के बाद सुखाना एकदम टेढ़ी खीर साबित होती है। यह समय मकई के लिए काफी महत्वपूर्ण होता है। अब इस समय पर बारिश होने की आंशका से किसान अभी से चिंतित नज़र आते हैं।
सरकार की तरफ से मुआवजा मिलने की आश रखना जैसे पत्थर पर सिर फोड़ना साबित होगा। इसलिए किसान भाई पूर्णतः मौसम पर ही निर्भर हैं। क्यूंकि मकई फसल पर बेटियों की डोली उठना, सपनो का घर बनाना, व मोटरगाड़ी के सहारे रास्ता नापना यहां के किसानों की नियति है।
हालांकि इस बात से इनकार नही किया जा सकता है कि तापमान में काफी गिरावट आई है। मौसम का मूड पूरी तरह आशिकाना हुआ है। अभी भी रात में एक चादर का सहारा लेना पड़ रहा है। अब वक्त ही बताएगा कि ऊंट किस करवट बैठता है ?
[स्रोत- निर्मल कुमार]















































