पारिवारिक कलह का बच्चों पर प्रभाव – एक सोच

पारिवारिक कलह

परिवार को चित्रित करने पर मेेरे अन्तर्मन में यह छवि उभरती है -एक छायादार वृक्ष जो पिता है, माता उस वृक्ष पर फलती फूलती बेल, और उस वृक्ष की छाया में पलने वाले पौधे हैं बच्चे। वृक्ष बड़े बड़े आॅंधी तूफानों को स्वयं सहकर फलती फूलती बेल को सहारा देता है और दोनों की गहन छाॅंव में छोटे छोटे पौधे पलते और पनपते है। परन्तु यह चित्र तब विकृत सा लगने लगता है जब पेड़ और बेल के इस सामन्जस्य में ही विकार आ जाए।

दुर्भाग्यवश पति पत्नी के झगड़े आज समाज के हर वर्ग और स्तर में एक विकराल समस्या बन कर उभरे हैं। समस्या के कारणों के विस्तार में जाना अपने आप में एक विस्तृत चर्चा का विषय है । इस लेख में मैं मात्र इस विषय पर चर्चा कर रहीे हूॅं कि पारिवारिक कलह के दुष्प्रभाव से बच्चों को दूर रखने के लिए उन्हें अपने माॅ बाप से अलग हाॅस्टल या बोर्डिंग भेजना, जैसा कि मैंने ऐसे कुछ दुखद प्रकरणों में देखा है, कहाॅं तक उचित है ! अधिकाॅंशतया मनमुटाव बढ़ने पर पति पत्नी और उनके सम्बन्धी व शुभचिन्तक यही उचित समझते हैं कि नित्य के झगड़ों से बच्चों को दूर कर दिया जाये जिससे वे पढ़ाई में मन लगा सकें ।

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पर इस विषय में मेरी सोच यह है कि भले ही पति पत्नी में कितना भी मनमुटाव क्यों न हो जाये, जब तक वो साथ रहते हैं, यथासम्भव बच्चों को भी उनके साथ ही रहना चाहिए । ऐसा न केवल परिवार को बिखरने से बचाने के लिए सहायक है, बल्कि बच्चों के लिए भी श्रेयस्कर है ।

आज जिन बच्चों को हम कलह से दूर रख रहे हैं, आगे चलकर उन्हें भी वैवाहिक सम्बन्धों में बंधना है और निभाना है । जिन समस्याओं का सामना वे भी आगे चलकर कर सकते हैं, वे समस्याएॅं स्वयं उनकी आॅंखों के समक्ष चलचित्र की भाॅंति चल रही हैं । यह बात अवश्य है कि उनका बालमन इन समस्याओं का मनोविश्लेष्ण कितना और किस तरह कर पाता है । फ़ि़र भी, मैं यही कहूॅंगी कि बच्चे अपनी विद्याअर्जन की आयु में विद्यालय जा रहे हैं, अपनी आयु के बच्चों के साथ सामन्जस्य बैठाना सीख रहे हैं, तो क्यों नहीं परिवार में किस तरह सहयोग बनाया जाता है, यह भी सीखेें ।
ऐसे कई सफल व्यक्तित्व हैं जिन्होंने बचपन में माता पिता के बुरे सम्बन्ध, गरीबी, शारीरिक अक्षमतायें देखीं, फिर भी जीवन में अपार सफलता प्राप्त की, उदाहरणस्वरूप ओप्रा विन्फ्रे, बैन्जामिन फ्रैंक्लिन, एन्जेलीना जोली, लिण्डसे लोहान, आदि । पाश्चात्य संस्कृति में तो यह साधारण सी बात है कि बच्चे बालपन से ही मातापिता के प्रतिकूल सम्बन्धों में पलकर बड़े होते हैं ।

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बच्चों को घर की बुरी परिस्थितियों से दूर भेजकर क्या हम उनमें पलायनवादिता की प्रवृत्ति का बीजारोपण नहीं कर रहे हैं ? परिस्थितियों से लड़ना मुश्किल हो जाये तो मैदान ही छोड़कर भाग जाओ, क्या यही जीवन जीने का सही दृष्टिकोण होना चाहिए ?
मेरा मानना है कि बच्चों को उन्हीं परिस्थितियों के बीच गलत सही का भेद करना आना चाहिए । एक सम्पन्न परिवार तो यह सोच भी सकता है कि इस समस्या के इस समाधान को तो धन से खरीदा ही जा सकता है । पर जो परिवार इतने सम्पन्न नहीं हैं, वे क्या करेंगे ? और क्या बच्चे माता-पिता के झगड़े और उनके दुखी जीवन से दूर सुखी रह पायेंगे ?

पारिवारिक जीवन किसी एक की पसन्द नापसन्द से नहीं चलता । बड़ी जीत के लिए छोटी छोटी आपसी लड़ाईयों को हारने के लिए तैयार रहना ही पारस्परिक प्रतिबद्धता की नींव है जिसमें परिवार के सदस्यों को एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी, बल्कि एक दूसरे को सम्पूर्ण बनाना है । परिवार तो सबसे पहले और अन्त तक सिखाने वाला विद्यालय है । इस विद्यालय से दूर भेजकर हम बच्चे के व्यक्तित्व का अधूरा ही विकास कर पायेंगे ।

 

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