दीपावली अर्थात “रोशनी का त्योहार” शरद ऋतु (अक्टूबर-नवंबर) में हर वर्ष मनाया जाने वाला एक प्राचीन हिंदू त्योहार है। यह त्योहार आध्यात्मिक रूप से अंधकार पर प्रकाश की विजय को इंगित करता है. इस शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों ‘दीप’ अर्थात ‘दिया’ व ‘आवली’ अर्थात ‘लाइन’ या ‘श्रृंखला’ के मिश्रण से हुई है
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर’ यह हमारे उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। दिवाली का पर्व हमारे समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है।
ऐसा विदित है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। इस स्वागत की लिए अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए। यह हम भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है।
हम प्रकाश क्यों करते हैं? –
दार्शनिक स्पष्टीकरण की अनुसार प्रकाश इस दुनिया में सभी अच्छी चीजों का प्रतीक है एवं अँधेरा बुराई, डर और मौत का प्रतीक है। इसलिए हमें हमेशा प्रकाश की आवश्यकता होती है। लेकिन इसके लिए वैज्ञानिक व्याख्या कुछ इस तरह से है की सर्दियों के महीनों में कई कीड़े फसलों को नष्ट कर देते हैं। जब हम एकसाथ लाखों दीपक प्रज्जवलित करते हैं तो वे आते हैं और इसमें गिर जाते हैं। आप उन्हें नहीं मारते हैं अतः आप दोष नहीं कमाते हैं परन्तु यह कीड़े की प्राकृतिक प्रकृति है की उन्हें प्रकाश की आना होगा यद्यपि यह उन्हें मरने के लिए आकर्षित करती है।
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हम आतिशबाजी क्यों करते हैं? –
क्या हमने ये कभी सोचा है की ओलंपिक या आजादी के दिन आतिशबाजी करने में पश्चिमी देश अरबों डॉलर क्यों खर्च कर रहे होते हैं। यही वजह है कि हम अपने बच्चों को अपने पर्यवेक्षण के तहत आतिशबाजी, धूप और रोशनी करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इसमें कुछ छोटे बिंदु भी हैं जैसे की कुछ संस्कृतियों में ऐसा मन जाता है कि रोशनी जैसे आतिशबाजी बुरी आत्माओं को डरा देंगी.
बृहदारण्यक उपनिषद की ये प्रार्थना –
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अँधेरे की हार के बाद असली ‘अभंग-स्नन’ और उत्साह ही वास्तविक दिवाली उत्सव का प्रतिबिम्ब होता है.