पितृलोक, पितर, पितृपक्ष की कई व्याख्याये हम लोग आज कल कई वेबसाइट, अखबारों और पत्रिकाओ में पढ़ते होगे | इन सबमे कुछ बातो को ही लगातार दोहराया जाता है और कुछ अनछुए तथ्यों को कोई स्पष्ट नहीं करता |
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आज हम चर्चा करते है पितरो के तर्पण में प्रयोग होने वाले तिल और कुश का, आखिर इनका ही प्रयोग क्यों होता है ?
अथर्ववेद के अनुसार “कुश एक पवित्र घास है जो कि जल को संक्रमित होने से रोकती है, ये घास जलीय स्थानों के आस पास स्वतः ही उग आती है |” प्रकृति के पास अपने स्वयं के संसाधन है प्रत्येक पदार्थ के रक्षण और विनाश के, पितरो के तर्पण के लिए मानस जन इसे अपनी अनामिका ऊँगली में पहनते है | अनामिका में हमारी आध्यात्मिक और मानसिक ऊर्जा संचित होती है और इसका ज्योतिषीय आधार माने तो इसके मूल में सूर्य का निवास माना जाता है जो आत्मा का कारक है |
कुश एक सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा प्रतिरोधक भी है जो नकारात्मक ऊर्जा को हमारी अनामिका में प्रविष्ट होने से रोकता है, जब हम पितरो का तर्पण करते है तो हमारी परम सात्विक भावनाए निर्दोष रूप से उन तक प्रवाहित होती है और वे तृप्त होते है | वो पितर सीधे हमारे अंतर्मन हमारी आत्मा से जुड़ जाते है और वास्तव में इसी मिलन के लिए ही हमारे पितृ हम तक आये है | कुश को क्रोधशामक माना जाता है , क्रोध आपकी किसी भी पूजा, पाठ, यज्ञ, हवन, तर्पण या श्राद्ध को विफल कर देता है तो उससे बचाव के लिए इसको धारण किया जाता है |
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प्रसन्नचित्त होकर किये गए कर्मो से उत्पन्न ऊर्जा अत्यंत फलदायी होती है और ये सकारात्मक ऊर्जा हमारे मन, मष्तिष्क और ह्रदय पटल को शुद्ध करती है और उसका प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है जिसके परिणाम स्वरुप पुण्य संचित होते है और आत्मबल में वृद्धि होती है | सनातन धर्म में पूजन की गहन प्रक्रियाओं के कई छोटे छोटे बिंदु है जो अत्यंत वैज्ञानिक है और उनको आज हम रुढ़िवादी तरीको में परिवर्तित कर चुके है जो केवल कर्मकांड तक सीमित हो गए है |
अब बात करते है तिल की, तिल को हम देवान्न भी कह सकते है | इसका प्रयोग होम, हवन, यज्ञ और तर्पण में अनिवार्य है इसके अभाव में इच्छित मनोरथ अधूरे ही रह जाते है | प्रत्येक पूजा में श्रीफल अथवा नारियल और प्रत्येक हवन में (अग्नि) तर्पण (जल) में इसका प्रयोग होता है | श्रीहरि विष्णु के परम प्रिय पदार्थो में तुलसी और तिल की गणना होती है और माता लक्ष्मी को खीर सर्वाधिक प्रिय है | इन्ही पदार्थो के समन्वय से पितरो का श्राद्ध कर्म किया जाता है जिससे उन्हें वैकुण्ठ सा मोक्ष फलदायी स्थान प्राप्त हो, अतृप्त को तृप्ति और मृत के मोक्ष की कामना को पूर्ण करने का उत्सव ही पितृपक्ष है |
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अपने पितरो को श्रद्धा पूर्वक स्मरण करते हुए उनके प्रिय भोजन, वस्त्रो को जरुरत मंदों और निराश्रितों को भेट करना ही वास्तव में श्राद्ध है | इसके लिए ब्राह्मण भोज या कर्मकांड आवश्यक नहीं है, इसमें मुख्य आवश्यकता है अपने पूर्वजो के शुभ कर्मो और संकल्पों को पूरा करने की चाहत | ये सनातन का ऐसा पर्व है जब हम शोक और हर्ष के सम्मिश्रण के साथ अपने पूर्वजो का अपने आस पास अनुभव करते है, उनकी उपस्थिति हमें निरंतर शुभ कर्मो के लिए प्रेरित करती है और संघर्ष से भरे जीवन में प्रेरणा स्रोत बनती है |
[स्रोत: पं. नीरज शुक्ला]