आज पूरे देश में राष्ट्रवादी पत्रकारिता की एक अलग भूमिका है। हिंदी पत्रकारिता वर्तमान में नित्य नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है। भारत में पत्रकारिता का शुरुआती दौर निष्पक्षता और राष्ट्रवाद से ओतप्रोत था। जिसके उदाहरण आजादी से हमें भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने में अखबारों का प्रयोग जनजागरण और क्रांतिकारी घटनाओं को देखने में मिलता है। अंग्रेजों के द्वारा भारतीयों की अभिव्यक्ति की आजादी पर तमाम प्रतिबंध लगाने के बावजूद शंखनाद रणमेरी जैसी राष्ट्रवादी समाचार पत्र निकलते रहे। और भारत की आजादी की आवाज को बुलंदी पर पहुंचाते रहे कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी राष्ट्र के निर्भीक और साहसी पत्रकारों ने राष्ट्रवाद और देशभक्ति का जज्बा कायम रखा और अपना लक्ष्य नहीं छोड़ा और भारत माता की रक्षा के लिए अपने आप को बलिदान कर दिया।
देश में आज चारों और राष्ट्रवाद से जुड़ी बातों पर बहस छिड़ी हुई है राष्ट्रवाद की स्वीकार्यता बढ़ी है। उसके प्रति लोगों की समझ बढीं है। राष्ट्रवाद के प्रति जो लोगों में नकारात्मक धारणाएँ थीं उनका खंडन हुआ है।
भारत की राष्ट्रवादिता
भारत के राष्ट्रवाद की बात करें तो भारत की ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ’ की तस्वीर उभरकर सामने आती है। ‘विभिन्नता में एकता भारत की विशेषता’ भारत की एकता का स्वर है जो हमारी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा को समझाता है। प्रो.संजय द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रवाद भारतीयता और पत्रकारिता’ के माध्यम से किया है उन्होंने न केवल राष्ट्रवाद पर चर्चा को विस्तार दिया है,बल्कि पत्रकारिता में भी ‘अपना राष्ट्र सबसे पहले’ के भाव की स्थापना को आवश्यक बताया है।
यह पुस्तक ऐसे समय में आई जब मीडिया में भी राष्ट्रीय विचारधारा बहती दिख रही थी। भारतीय और राष्ट्रीयता एक-दूसरे की पूरक है। पुस्तक में राष्ट्रवाद का ध्वज उठाकर और सामाजिक जीवन का व्वृंत लेकर चल रहे चिंतक विचारकों के दृष्टिकोण भी समाहित है। भारत का राष्ट्रवाद उदार है। उसमें सबके लिए स्थान है सबको साथ लेकर चलने का आवाहन भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद करता है
मीडिया की राष्ट्रवादी समाज में भूमिका
हमेशा से मीडिया समाज में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है वह जनता के मध्य निर्माण करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। इसलिए मीडिया की जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ जाती है अक्सर यह कहा जाता है कि लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका एक विपक्ष की तरह है। आज मीडिया अपने वास्तविक भूमिका भूलकर राजनीतिक दलों की तरह विपक्ष बनकर रह गया है। जिस तरह विपक्षी राजनीतिक दल सत्ता पक्ष के प्रत्येक कार्य को गलत ठहरा कर हो हल्ला करते हैं। वही कार्य आज मीडिया कर रहा है दिक्कत यहां तक भी नहीं किंतु कई बार मीडिया सत्ता का विरोध करते हुए सीमा रेखा से आगे निकल जाता है। कब सत्ता की जगह देश के प्रश्नों के निशाने पर आ जाता है उसको स्वयं पता नहीं चल पाता संभवत इस परिदृश्य को देखकर यह पुस्तक में राष्ट्रवाद और मीडिया विषय पर प्रमुखता से चर्चा की गई है।
प्रो. संजय द्विवेदी के इस कथन से स्पष्ट सहमति जताई जा सकती है, कि यह पुस्तक राष्ट्रवाद भारतीय और मीडिया के उलझी रिश्तो तथा उससे बनते हुए विमर्श पर प्रकाश डालती है निश्चित ही यह पुस्तक राष्ट्रवाद पर डाली गई धूल को साफ कर उसके उजले पक्ष को सामने रखती है। इसके साथ ही राष्ट्रवाद भारतीयता और पत्रकारिता के आपसी संबंधों को भी स्पष्ट करता है वर्तमान समय में जब तीनों ही शब्द एवं अवधारणाएं विमर्श में है