तेजस्वी, ओजस्वी महान व्यक्तित्व के धनी, प्रेरणा के आपार भंडार के स्वामी विवेकानंद को उनकी 155 वीं जयंती के शुभ अवसर पर आज संपूर्ण राष्ट्र नमन कर रहा हैं। 12 जनवरी 1863 को जन्में आदर्श व्यक्तित्व के धनी, राष्ट्र नायक को मेरा सलाम।
स्वामी विवेकानंद पिता विश्वनाथ दत्त माता भुवनेश्वरी देवी के नौ संतानों में से एक थे। स्वामी विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेंद्र दत्त था। 21 वर्ष की अवस्था में ही नरेंद्र दत्त के सिर से पिता का साया उठ गया। उस विषम परिस्थिति में भी बिना विचलित हुए कर्मठता से कर्मपथ पर (उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधतः) अर्थात् “उठो और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत” के अपने सिद्धांत को आत्मसात किए लगातार चलते रहें। अभाव और गरीबी में पलने वाला यह बालक अपने अटूट आत्मविश्वास के बल पर संपूर्ण विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब रहा।
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दुनिया के समक्ष स्वामी विवेकानंद का वास्तविक स्वरूप तब आया जब वे 11 सितंबर 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित घर्म संसद में सनातन हिंदू धर्म के पक्ष को रखने के दौरान स्वामी विवेकानंद ने जो अभिभाषण दिया। वह विश्वस्तरीय संबोधन अपने आप में एक ऐतिहासिक संबोधन बन गया। स्वामी विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के प्रति जो गुरुभक्ति, गुरु सेवा, गुरु के प्रति समर्पण का भाव प्रदर्शित किया वह अतुलनीय हैं।
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वर्तमान में जिस प्रकार से गुरु-शिष्य परंपरा कलंकित हुई हैं वह अवर्णनीय हैं। अतः आज के इस बदले हुए परिवेश में स्वामी विवेकानंद जैसे शिष्य और रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु की कितनी जरूरत हैं बयां नहीं कि जा सकती हैं। ऐसे महान गुरुभक्त, राष्ट्रभक्त, अपनी संस्कृति को सर्वोपरि मानने वाले, स्त्रियों को सदैव सम्मान की दृष्टि से देखने वाले, भारत माता के सच्चे सपूत के कीर्ति को शब्दों में बांध पाना मेरे जैसे अल्पज्ञानी के लिए संभव नहीं हैं।
अतः हम एकबार पुनः उस महामानव को नमन करते हुए, आज देश को उनकी कितनी जरूरत हैं? इस तथ्य को बयां करती हुई चंद पंक्तियों के माध्यम से, अपनी अंगुलियों को विराम देता हूं।
“फिर से आओ, इस वतन में, ऐ! वतन के नौजवां।
कल थी जितनी भी जरूरत, आज क्या करू बयां?
पुकारती हैं, ये जमीं, ये आसमाँ,
फिर से आओ, इस वतन में, ऐ! वतन के नौजवां”।
[स्रोत- संजय कुमार]