परिवार समाज की आधारभूत इकाई है । हमारे पितृसत्तात्मक समाज में पति को परिवार का स्वामी माना गया है । पर परिवार में स्त्री के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता । अपनी ममता की छाॅंव में संस्कारों का चोला पहनाकर पति के स्वाभिमान को मान देकर, स्नेह, प्यार और त्याग की प्रतिमूर्ति नारी एक परिवार का सृजन करती है । यदि पुरूष परिवार रूपी बगिया का स्वामी है तो स्त्री उस बगिया की देखरेख करने वाली मालिन है । यदि पुरूष परिवार की छत समान है तो स्त्री ही उसका स्तम्भ है । चाहे वसन्त आये या पतझड़, नारी वितान बनकर इस उपवन को सहेजे रखती है।
हमारे इतिहास में ऐसी अनेक महान् नारियों के उदाहरण हैं जिन्होंने स्वयं को सि़द्ध करने के लिए न ही कोई अभियान छेडा और न ही किसी तप की आड़ में परिवार से मुॅंह ही फेरा । जब जब पुरूष ने किसी उपलब्धि की चाह में या किसी गलत राह पर भटक कर, स्वार्थवश परिवार से मुॅंह फेर लिया तो नारी ने पुरूष के दायित्वों का भी सफलतापूर्वक निर्वहन किया । मानो पति को भीतर कहीं विश्वास था – छोडकर चल दूॅंगा इस गृहस्थी को भी तो स्त्री है ना ! पत्नी रूप में, माॅं बनकर, निभायेगी ही !
कहाॅं बचकर जायेगी नारी अपने उस विस्तार से – जिसे परिवार कहते हैं ।
इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय इतिहास की कुछ महान नारियों के प्रसंग उल्लेखनीय हैं ।
यशोधरा
जब गौतम बुद्ध निर्वाण की चाह में, महाप्रयाण की राह में, दबे कदमों घर से निकले थे, तो पत्नी यशोधरा और पुत्र सुप्तावस्था में थे ।
यशोधरा प्रातः काल जागी होगी, तो ढूॅंढती फिरी होगी, कलपती फिरी होगी ……….. कहाॅं हैं, कहाॅं हैं वो …….. । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य यशोधर में उसकी वेदना का यथार्थ चित्रण किया है । यशोधरा अपनी अनुचरी से कहती है – सखी, वे मुझसे कहकर तो जाते ……… । क्षत्राणियाॅं तो पूर्ण श्रृंगार कर, पति को राजतिलक कर रण में भेज देती हैं । क्या उनका सिंदूर स्वामी की राह की बेड़ियाॅं बन जाता है ? मुझे उन्होंने बहुत मान दिया, बहुत प्यार दिया …….. नहीं दिया तो विश्वास ! फिर भी यही प्रार्थना करती हूॅं कि वो जिस सिद्धि को पाने सब छोड चले गये, वह उन्हें अवश्य प्राप्त हो ।
गौतम बुद्ध ने जब परिवार का परित्याग किया तो पीछे छोड गये कुछ ऋण – पत्नी ऋण, पुत्र ऋण जो उनकी राह रोक लेते तो सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध की यात्रा पूरी न कर पाते । इस जग में आकर समाज के ऋणों से उऋण हुये बिना कैसा निर्वाण ! विश्वास था भार्या पर कि वह उन सारे ऋणों को अंगीकार कर उन्हें स्वतन्त्र कर देगी ।
उर्मिला
भ्रातृपे्रम की पराकाष्ठा लक्ष्मण ने चैदह वर्ष भाई भाभी की सेवा में न्यौछावर कर दिये, पीछे छोड गये नवब्याहता को । आज राम सीता पूजे जाते हैं, राम दरबार की तो छवि भी पूरी नहीं होती लक्ष्मण के बिना । महर्षि वाल्मीकि ने महान ग्रन्थ रचा, राम सीता को जनजन में ईष्वर का स्थान दिया पर उस तपस्विनी के जीवन पर दो शब्द भी नहीं लिखे जिसने लक्ष्मण की राह में विरह के नश्तर नहीं बिछाये अपितु दूर बैठी अपने स्वामी के सफल तप की कामना करती रही । ऐसी थी साध्वी उर्मिला ।
राम ने तो अपनी अद्र्धांगिनी को सहचरी बनाया, पर लक्ष्मण ने मुड़कर अपनी भार्या से यह भी नहीं पूछा – तुम्हारी भी तो कोई अपेक्षा होगी ….. कैसे काटोगी विरह के चैदह वर्ष ? वही हुआ जो होता आया है । पति ने एक निर्णय लिया और पत्नी को मान्य हो गया – ना पत्नी ने आवाज ही उठायी और ना पति ने पूछा ही ।
मन्दोदरी
देवों, फरिश्तों और मानवों के पीछे तो स्त्री रही ही है, राक्षसों के विषय में भी ऐसे प्रेरक प्रसंग मिल जाते हैं । मन्दोदरी को हिन्दू पुराणों में पन्च महाकन्याओं द्रौपदी, अहिल्या, सीता और सत्यवादी हरिष्चन्द्र की पत्नी तारा के साथ स्थान प्राप्त है ।
मन्दोदरी के समक्ष ऐसी चुनौती थी, जब उसका पति अन्य स्त्री के लिए अपना विवेक खो बैठा था । इतनी बडी ठेस ! ऐसे भावनात्मक भूचाल के मध्य भी वह अपने परिवार और पति के प्रति कत्र्तव्यों को सुचारू रूप से निभाती रही । यह परिभाषा है भावनात्मक रूप से सबल स्त्री की ।
रानी लक्ष्मीबाई
भारत भूमि की महानतम् नारियों की चर्चा हो तो यह सम्भव नहीं कि उस महान वीरांगना का उल्लेख न हो जो गृह भूमि और युद्ध भूमि, दोनों मोर्चोें पर खरी उतरी । रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसी वीरांगना थीं जिसने पति और पुत्र दोनों के मरणोपरंात राष्ट् की रक्षा हेतु अपना जीवन न्यौछावर कर दिया । उन्होने युद्ध के दौरान भी दत्तक पुत्र को सीने से चिपकाये रखा । सिद्ध कर दिया कि नारी अपनी परिधि में रहकर भी नर के समानान्तर खडी हो सकती है । वह न केवल मानसिक या भावनात्मक रूप से, बल्कि शारीरिक रूप से भी ’स्वयम् सिद्धा’ है ।
इन महान नारियों ने पुरूष स्वाभिमान को सिंदूर की तरह सिर माथे पर सजाया और कुशल कुम्भकार की भांति नवपीढी के सृजन व लालन पालन में सफल योगदान दिया । भावनाओं का सागर होते हुए भी नारी ने अपने विवेक को बह नहीं जाने दिया अपितु उन्हीं भावनाओं के थपेडों से लड़कर कमल के समान अडिग खड़ी रही है । समाज की इकाई है परिवार और परिवार की कभी न डिगने वाली कर्णधार रही है – नारी ।
विशेष:- ये पोस्ट इंटर्न पारुल अग्रवाल ने शेयर की है जिन्होंने Phirbhi.in पर “फिरभी लिख लो प्रतियोगिता” में हिस्सा लिया है, अगर आपके पास भी है कोई स्टोरी तो इस मेल आईडी पर भेजे: phirbhistory@gmail.com.