फिर भी

ये कैसी कशमकश है

प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री दुनियाँ को यह समझाने की कोशिश कर रही है कि प्राणी का जीवन इस कश्मकश में ही उलझा रहता है की वो अपने मन की सुने या अपने दिल की क्योंकि जब मन की सुनता है तो कभी-कभी दिल भर आता है और दिमाग को दिल की कही हर बात समझमे नहीं आती इसलिए आजीवन इंसान के मन और दिल की ही लड़ाई चलती रहती है.

 

कभी कभी हम बुरा नहीं सोचते सबके के लिए अच्छा सोच कर भी हम सबकी नज़रो में अच्छे नहीं बन पाते क्योंकि हर इंसान का अपना जीने का तरीका अलग होता है एक ही बात अलग-अलग इंसान अपने तरीके से समझता है कोई चीज़ किसी के लिए सही तो वही चीज़ दूसरे के लिए गलत होती है.याद रखना दोस्तों सबके दिल में परमात्मा का अंश है जिसे कृष्ण भगवान ने भागवत गीता में जीव आत्मा कहाँ है अब ये आप पर निर्भर करता है आप किसकी सुनो क्योंकि हर इंसान अपनी नज़र में ठीक होता है लेकिन ईश्वर की नज़र में हर कोई सही नहीं होता है।

अब आप इस कविता का आनंद ले
ये कैसी कश्मकश है??
मन की सुनु, तो दिल भर आता है।
दिल की सुनु, तो ये मन, उसे समझ नहीं पाता है।
आखिर ये जीवन हमसे क्या चाहता है??
अच्छाई की तरफ बढूं, तो बुराई सताती है।
बुरा करने का  सोच कर भी,
मेरी रूह तक काँप जाती है।
किसकी सुनु किसकी न सुनु,
ये मन तो सोच-सोच कर,
प्राणी को कितने नाच नचाता है।
मन ही मन में, ये मन तो,
दिल को अपनी हर एक बात बताता है।
मगर शांति के मार्ग पर चल कर,
दूसरे को बुरा लग जाता है।
धन्यवाद
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