फिर भी

बनाना चाहती हूँ एक ऐसी दुनियाँ…

प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री दुनियाँ को कवि और कवियत्रियों की दुविधा समझाने की कोशिश कर रही है, वह सोचती है कि कितनी साधना कर एक अच्छे विचारो वाली कविता की रचना होती है लेकिन आज कल इन सब बातो की गहराई को समझने वाले बहुत ही कम लोग रह गये है इसलिए इस कविता के ज़रिये वो ये ख्वाहिश कर रही है की काश वो एक ऐसी दुनियाँ बनाये जहाँ उनके विचारों का भी सम्मान हो उनको उनकी सही राह मिले।Dream House इस कविता के ज़रिये कवियत्री दुनियाँ को यह भी समझाना चाहती है कि वह यह बात अच्छी तरह से जानती है कि अब कविताओं का दौर कम हो गया है फिर भी वो इसी क्षेत्र में आगे बढ़ कर जीवन में कुछ बड़ा हासिल करना चाहती है क्योंकि जहाँ चाह होती है वही राह भी होती है और आसानी से जो मिल जाये उसकी कदर इस दुनियाँ को कहाँ होती है।

अब आप इस कविता का आनंद ले।

बनाना चाहती हूँ एक ऐसी दुनियाँ ,
जहाँ मेरे विचारों का भी सम्मान हो,
ब्रम्हांड की दिव्या आत्माओ में,
मेरी भी कही पहचान हो।
व्याकुल है ये मन,शांति की नगरी को,
चाहता है, ये पाना।
तुमसे कही दूर नहीं,
तुम्हारे अंदर ही छुपा है तुम्हारा कीमती खज़ाना।
बढ़ती उम्र के साथ-साथ,
मैंने देखा, ये खूब ज़माना।
किसी ने समझा तुम्हे,
तो किसी ने समझ कर भी तुम्हे न पहचाना।
हर वक़्त आवाज़ दो अपनों को,
पूरा करो तुम भी, अब अपनों के सपनो को।
क्या पता वो अपना, कल कही खोजाये?
ढूँढना भी चाहो, तो मिलकर भी, वो तुम्हें मिल न पाये।
जीवन की चोटे जो जितनी गहरी खाये।
अपने दर्दो की पीड़ा, जो हर किसी को न बताये।
जीवन के हर पड़ाव का लुफ्त,
सुकून से बस वो ही लुटाये।

धन्यवाद।

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