फिर भी

पथिक चला पश्चिम की ओर

pathik chala paschim ki or poetry

अम्बर हो चला वर्ण रक्तिम
क्षितिज पर है बिखरी रश्मि अंतिम
अग्रसर अपने गंतव्य को
पूर्ण कर अपने कर्त्तव्य को
तिमिरमान कर नभ का छोर
पथिक चला पश्चिम की ओर l

होने लगी सौम्य वसुधा श्यामल
सुप्त होते रंजित पुष्प कोमल
अप्सरा सा हुआ संध्या आगमन
मंद चल रही उन्मुक्त पवन
सांध्यकाल की चिन्मयता में चंचल चित हो रहा विभोर
पथिक चला पश्चिम की ओर l

टिमटिमाने लगे आकाशदीप
जल उठे दल में गृह प्रदीप
पंछी करने लगे मधुर कलरव
पुष्पों ने बिखेरा सुमित सौरभ
कानन की अविरल ध्वनि में गूँज करते विपिन मोर
पथिक चला पश्चिम की ओर l

छोड़ धरा को नीरवता में
धवल शशि की शीतलता में
निद्रा राशि में करके विलीन
प्रभात की प्रतीक्षा में नवीन
पथिक अपना कर्म करने फिर आवेगा जब होगी भोर
पथिक चला पश्चिम की ओर
पथिक चला पश्चिम की ओर l

विशेष:- ये पोस्ट इंटर्न वरुण शर्मा ने शेयर की है जिन्होंने Phirbhi.in पर “फिरभी लिख लो प्रतियोगिता” में हिस्सा लिया है, अगर आपके पास भी है कोई स्टोरी तो इस मेल आईडी पर भेजे: phirbhistory@gmail.com

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