प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री दुनियाँ को यह समझाने की कोशिश कर रही है कि बुढ़ापा तो सबको ही आता है चाहे वो लड़की के माता पिता हो या लड़के के लेकिन ये सोच कर दुख होता है कि बेटियाँ अपने माता पिता का बुढ़ापे का सहारा कभी-कभी चाह कर भी बन नहीं पाती क्योंकि ये भी एक सच है कि माता पिता खुद बेटी का कुछ लेना नहीं चाहते।
अब आप इस कविता का आनंद ले।
लड़की के माता-पिता भी बुज़ुर्ग होते है।
अपनी दिनचर्या को समेट, वो भी रात में थक के सोते है।
बुढ़ापे की चपेट में आके, वो भी अपनी सुध बुध खोते है।
फिर क्यों नहीं होता, कोई उनके बुढ़ापे का सहारा?
लहरों से लड़कर ही तो मिलता, हर कश्ती को किनारा।
फिर क्यों किसी की कश्ती, समुंदर के बीच डोलती रहती है।
अपने हक़ में यारो, वो क्यों किसी से कुछ नहीं कहती है।
समुंदर के बहाव के सहारे ही तो, वो बस बहती रहती है।
इस उम्मीद में कि शायद एक दिन, उसे भी किनारा मिल जायेगा।
उसकी बची उम्मीदों का भी, फूल एक दिन खिल जायेगा।
जब उस कश्ती का किनारा, अपने साहिल से मिल जायेगा।
धन्यवाद