फिर भी

हमारा असली घर

hamara asli ghar

प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री समाज को यह समझाना चाह रही है कि इंसान पूरी ज़िन्दगी मेहनत कर जो घर बनाता है सच में तो वो उसका घर है ही नहीं क्योंकि हम सब आत्माये इस शरीर में रहती है। तो ये शरीर ही हमारा असली घर है और इसे सुकून देने के लिए हम इस दुनियाँ में अपना घर बनाते है। हर इंसान को ये समझना होगा कि हमारा शरीर ही हमारा असली घर है।

हमे इसे स्वस्थ रखना होगा और आजीवन अपना और दूसरों का ख्याल रखना होगा। हम सबको ऐसा सोचना चाहिये कि ये शरीर हमारा मंदिर है और इसमें बैठी जीव आत्मा हमारे ईश्वर है। इसलिए हर रोज़ अच्छे विचारों से इस शरीर को साफ़ करना चाहिये।खुद ये बात समझ कर दूसरो को भी बतानी चाहिये क्योंकि ज्ञान बाटने से बढ़ता है। ऐसी सोच अगर पूरी दुनियाँ रखेगी तो कभी लड़ाई झगडे नहीं होंगे और सब आनंद के साथ अपना जीवन बितायेंगे।

अब आप इस कविता का आनंद ले।

इस दुनियाँ में आकर,
हम एक घर बनाते है।
उस घर की हर एक नीव को रखने में,
न जाने हम कितने पसीनें बहाते हैं।
वक़्त के निकलते हम ये समझ जाते हैं।
ये घर तो मेरी कहाँनी का सेट-अप है,
जिसे बनाने में मैंने पूरी उम्र गवा दी
रात दिन पसीना बहाकर,
मैंने अपने सही घर को पनाह दी।
सही मायने में,
मेरा घर तो ये शरीर है,
जिसमें हर वक़्त मैं रहता हूँ।
देखू हर वक़्त दुनियाँ दारी,
फिर सबसे अपने अनुभव कहता हूँ।
कोई मेरी सुनता है।
तो कोई मेरा अपमान कर देता है।
ये शरीर ही तो है बस, मेरे इस जन्म का घर,
ऐसा मेरा नहीं कुदरत का लेखा है।
मेरी इस सीधी बात को नहीं समझते
ऐसे लोगो को मैंने देखा है।
मेरी असली कहाँनी तो मेरी सोच से ही बनेगी ,
पढ़के मेरी इस सोच को,
एक दिन ये दुनियाँ भी मुझ पर गर्व करेंगी।

कृपा कर आप ये स्टोरी बहुत लोगो तक पहुँचाये जिससे बहुत लोग सही ज्ञान तक पहुँचे। हमारी सोच ही सब कुछ है हम जैसा सोचते है वैसे ही बन जाते है।

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