प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री दुनियाँ को यह समझाने की कोशिश कर रही है कि आज भी दहेज़ के नाम पर ये दुनियाँ हर बेटी का दिल दुखाती है। रिश्ते निभाने के बजाये लोग लेन-देन में ज़्यादा ध्यान रखते है। कवियत्री सोचती है ससुराल और मायके की इन उम्मीदों को पूरा करने में न जाने कितना हर बेटी सहती है। शादी तो जैसे आज कल एक दिखावा हो गया है।
अब आप इस कविता का आनंद ले।
बेटियाँ ही सबसे बड़ा धन है।
उनके स्पर्श में देखो, न जाने कितना अपनापन है।
अपने माता पिता को छोड़,
पराये घर में बस जाती है।
अपनी इच्छाओ को भूल,
दूसरों के रंग में रंग जाती है।
फिर क्यों ये दुनियाँ उसके मायके से,
पैसो की भी उम्मीद रखती है?
ज़रा पूछो उस बेटी के दिलसे,
ये बात इस दुनियाँ की उसके दिल में कितनी चुभती है।
सबकी इच्छाओ की पूर्ति में,
वो बेचारी तो पिस ही जाती है।
अपना हाले दिल, अक्सर वो ईश्वर को ही बताती है।
आखिर कब ख़तम होगी, ये लेन-देन की बेला।
इस दुनियाँ की भीड़ में,
हर इंसान है देखो कितना अकेला।
जब लेन-देन से ज़्यादा लोग
एक दूसरों का साथ निभायेंगे।
फिर क्या पराया और क्या अपना
हर बेटी के अपने दो घर हो जायेंगे।
धन्यवाद।