फिर भी

मैं और मेरी खामोशी

प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री मन ही मन खामोश रहकर अपनी ही ख़ामोशी से बात कर रही है वह व्याकुल मन से ये सोच रही है कि कैसे इस भागती हुई ज़िन्दगी में मैंने तुमको इस उम्र में पाया और तुमने भी मुझे इस दुनियाँ की भीड़ में चुना।

I and my silence

फिर ख़ामोशी ने ख़ामोशी से कवियत्री के सवाल का जवाब दिया की भीड़ में भी तुझे तनह पाया इसलिए मैं भी तेरे संग होचली और ऐसा नहीं कि केवल तू ही अकेली है इस धरती पर हर मानव ही यहाँ अकेला है बस लोग अपना सच्चा मित्र अपने से कही बाहर ढूँढ़ते है बल्कि सच तो ये है हर इंसान का सबसे सच्चा मित्र और उसका शत्रु उससे कही बाहर नहीं उसके अंदर ही है।

अब आप इस कविता का आनंद ले.

खामोशी में खामोशी से, मैं चुपकेसे कहती हूँ।
तुझे नहीं पता,मैं तेरी होकर, तेरे संग चुपकेसे बहती हूँ।
शांति है तुझमे, सुकून है तुझमे,
क्यों तू मेरे संग होचली,
ऐसा क्या दिखा तुझे मुझमे??
फिर ख़ामोशी ने, ख़ामोशी में, मुझे ख़ामोशी से जवाब दिया।
दिया तूने अपना सबकुछ पर तूने किसी से कुछ न लिया।
फिर तुझे अकेला देख,
तुझे अपना दोस्त बनाने का विचार आया।
तुझे अपना के, फिर तुझ जैसा मित्र पाके,
इस दिल को भी मेरे, करार है आया।
अब मैं और मेरी ख़ामोशी अक्सर आपस में बात करते है।
दुनियाँ की इस चका चौंद को देख,
हम दोनों ही कहाँ इस दुनियाँ पे मरते है??
अपने दायरे में रहकर हम अक्सर एक दूसरे से ये कहते है।
हम एक ही जिस्म में,एक ही जान बनकर तो रहते है.
ज़िन्दगी की हर परिस्थिति में हम दोनों,
एक दूसरे का हाथ थामे बहते है.

धन्यवाद।

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