फिर भी

राजनीति में मताधिकार का मजाक

भारतीय राजनीति में दो दलीय प्रणाली की आवश्यकता महसूस हो रही है । देश में आज सत्ता पाने के लिए जिस तरह का व्यवहार हो रहा है जिस तरह के दल बदलने की गठबंधन करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है उससे तो यही महसूस होता है कि राजनीति में वोट किसे दिया जाए, क्यों दिया जाए ।

क्योंकि हम जिस के पक्ष में वोट दे रहे हैे । हो सकता है कि हमारा वोट उसी की सरकार बना दे, या यह भी हो सकता है कि हम जिन मुद्दों को लेकर अपना वोट दे रहे हैं जिस सरकार को चुन रहे हैं हो सकता है कि वह पार्टी किसी ऐसे दल के साथ गठबंधन कर ले जिसको हम कभी वोट नहीं देना चाहते हैं ऐसी परिस्थिति में भारत की राजनीत मैं बहुदलीय प्रणाली का दुरुपयोग होता नजर आ रहा है ।

सरकार को चाहिए और चुनाव आयोग को चाहिए कि पहले पार्टियों से इस बात का स्पष्टीकरण ले लिया जाए की वह किस पार्टी के साथ गठबंधन करेगी और किन मुद्दों पर करेगी अगर वह पार्टी उससे गठबंधन नहीं करती है या उससे गठबंधन तोड़ती है तो किसके साथ जाएगी यह सभी विकल्प चुनाव से पूर्व ही चुनाव आयोग को लिखित रूप में शपथ पत्र के साथ ले लेना चाहिए ।

यदि ऐसा होता, तो कांग्रेस और जेडीएस का आज गठबंधन नहीं होता बिहार में भारतीय जनता पार्टी और नीतीश कुमार का गठबंधन नहीं होता पूर्वोत्तर के राज्यों में जो हलचल बनी रहती है उस पर भी लगाम लगती और केंद्र की कई बार गिरती हुई सरकार है बच जाती 90 से 2000 के बीच में जो उथल पुथल केंद्र की राजनीति में रही है वह भी याद करने योग्य है।

राजीव गांधी के समय में चंद्रशेखर की सरकार इसका एक उदाहरण है क्या करें कि भारत की जनता के द्वारा दिए गए अनमोल वोट का दुरुपयोग ना हो ? इस पर विचार होना चाहिए । जम्मू एंड कश्मीर में पीडीपी और बीजेपी कभी भी साथ आने की स्थिति में नहीं थे लेकिन सत्ता पाने के लोभ में दोनों ही पार्टियों ने, कभी विचार ना मिलने वाली पार्टियों के साथ गठबंधन कर लिया और सत्ता पर काबिज हो गए यही मुसीबत है कि पढ़ा लिखा आदमी वोट डालने से हिचकिचाता है ।

[स्रोत- कप्तान सिंह यादव]

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