प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री समाज से पृथ्वी को बचाने की याचना कर रही हैं, वह अपनी कविता के ज़रिये दुनियाँ को सृष्टि का हाल बता रही हैं. जिसका ज़िम्मेदार ये समाज खुद ही है, कवियत्री को ये देख बहुत दु:ख होता हैं कि लोग पर्यावरण को स्वच्छ रख ने में कम योग दान देते हैं और कुछ लोग जो इस पर ध्यान दे रहे है वो इस समस्या के लिए पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि जब तक हर इंसान सृष्टि को बचाने का नहीं सोचेगा तब तक कुछ बड़ा हम कर नहीं पायेंगे।
इंसान धूप के ताप को कोस कर ए सी में बैठना पसंद करता हैं, कवियत्री समाज से ये पूछना चाहती है कि क्या हम ज़िम्मेदार नहीं है इस ताप को बढ़ाने के, तो फिर क्यों हम शिकायतें करते हैं। सृष्टि की महानता तो देखो इतना सब कुछ सह कर भी कुछ नहीं कहती हैं। अपने बच्चों के खातिर वो इतना सब कुछ सहती हैं। इस कविता के ज़रिये वो समाज से गुज़ारिश कर रही है कि क्यों न हम सब मिल कर पर्यावरण की रक्षा करें।
अब आप इस कविता का आनंद ले
पृथ्वी के कणों से उत्पन्न हुये,
पृथ्वी में ही कही मिल जायेंगे।
अपनी मातृभूमि के संग,
क्या ऐसा ही दुर व्यवहार हम करते जायेंगे??
उसके दर्द का ताप भी अब बढ़ चुका हैं,
फिर क्यों,इंसानो के अत्याचारों का कहर, अभी नहीं रुका हैं।
एक सीमा तक ही तो वो ये सब झेल पायेगी।
अपने बच्चों से नहीं, तो फिर किससे, धरती माँ उम्मीद लगायेगी??
उसकी परेशानियों को देख,
कुछ लोग ही बस, उसका हाल समझ पाते हैं।
धूप के तापमान को कह बुरा,
लोग ए-सी में बैठ जाते हैं।
ऐसा पर्यावरण हमने खुद ने ही तो बनाया हैं।
इस तापमान को सेहती सृष्टि ने,
फिर भी अपने हर बालक को गले लगाया हैं।
हम सब के बढ़ती गर्मी के, ताने सुन कर भी,
ये सृष्टि कुछ नहीं कहती नहीं।
अपने नादान बच्चों की हरकत,
हल हाल में चुप रह कर सहती हैं।
विशेष:- ये पोस्ट इंटर्न प्रेरणा महरोत्रा गुप्ता ने शेयर की है जिन्होंने Phirbhi.in पर “फिरभी लिख लो प्रतियोगिता” में हिस्सा लिया है, अगर आपके पास भी है कोई स्टोरी तो इस मेल आईडी पर भेजे: phirbhistory@gmail.com.
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