एक अनकहा अनछुआ- सा।
सिसकती हूं रोज ये सोच कर,
क्या पा सकूंगी उन सपनों को?
जिन्हें पाने की आस है,
जिन्हें पूरा करने की चाह है।
क्योंकि जब भी पाना चाहा अपनी आस को,
तो हमेशा लगी दिल से कोसो दूर।
तड़प कर रह जाती है,
बस दिल के एक कोने में
यह कसूर उसका नहीं, मेरा है
क्योंकि उस चाहत में शिद्दत की कमी थी।
कही न कहीं प्रयास की कमी भी थी,
तो पूरी होकर भी पूरी नहीं लगती थी।
आज होगी वो पूरी
जो ठानी है पूरी करने की,
जाने से पहले करुंगी इस आस की चाहत को पूरा
जिससे गम में भी हो रुखसती का मजा पूरा।