प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री दुनियाँ को यह समझाने की कोशिश कर रही है कि क्या ये ज़रूरी है कि जब तक किसी की आँख में पीड़ा के आँसू न हो तब तक हम उसकी पीड़ा समझ न पाये। इस सृष्टि में कई तरह के जीव जन्तु है उसमे से एक मानव ही है जो अपनी पीड़ा किसी के सामने रख सकता है कवियत्री सोचती है तो फिर बेज़ुबान पशु, पक्षी ,सृष्टि आदि का क्या?
अब आप इस कविता का आनंद ले।
जानने में और मानने में फर्क तो होता है।
किसी के झलकते आँसुओ को देख ही,
क्यों तभी किसी के दर्द का एहसास होता है।
कोई कुछ कह देता है तो कोई कुछ कहता नहीं।
लगी ही होगी चोट दिल पर गहरी,
क्योंकि यूँ ही तो कभी, किसी का आँसू बहता नहीं।
सृष्टि का क्या वो कैसे अपने जज़्बात बतायेगी?
मानव के हर प्रहार को, क्या वो यूँ ही सहती जायेगी?
अपनों के खातिर वो कब तक यूँ ही तड़पती जायेगी।
उसका अपना मन भी तो खुल के जीने को करता होगा।
कोई तो उसकी सुन शायद उसके दामन में भी खुशियाँ भरता होगा।
आज उन सच्चे और अच्छे मानवो की संख्या कम है।
शायद इसलिए ही, सृष्टि की आंखे भी कितनी नम है।
तभी तो शायद कही ये तेज़ बादलो के साथ बरसती है।
कही पानी की एक बूँद भी पीने को इंसानियत तरसती है।
तो कही अपने करुणा के प्रताप से वो सबको तृप्त रखती है।
धन्यवाद