चलते चलते राहे-गुज़र में कभी-कभी
झिलमिलाते हुए, सपने कहीं मिल जाते हैं,
हाथ बढ़ा कर छूना चाहो तो फिर,
धुएँ का गुबार बनकर आसमां में घुल जाते हैं।
पुरानी अटारी पर बंद किताबों के ढेर में
गुलाब की पंखुड़ियाँ सूख गईं हैं जैसे,
पूरे-अधूरे सपनों का संसार में वैसे
गुडमुडी सी लगा के सो जाते हैं।
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इंद्रधनुषी रंगों से सजे कुकुरमुत्ते से उगे,
बारिश की बूंदों से बनते-पिघलते,
पत्तों के किनारों पर रुकने को मचलते,
पल में धरा में मिल कर सो जाते हैं।
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मुट्ठी से फिसलती रेत को रोक लेते हैं,
अधमुँदी आँखों में हल्के हाथों से
‘लेखनी’ के सपनों को सँजो लेते हैं
बिखर न जाएँ गिर के रंग कहीं,
चलो इन्हें जिंदगी में सँजो लेते हैं।
_ लेखनी _